गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

नाथों के नाथ

शिवरात्रि के इस पावन पर्व पर नाथो के नाथ केदारनाथ को मेरा शत शत नमन |१६ जून को उत्तराखंड के केदारनाथ में आने वाले सैलाब में बह गयी उन शिवभक्त आत्माओंको मैं इस रचना द्वारा श्रद्धा पूर्वक श्रध्धांजलि अर्पित करती  हूँ |

नाथों के नाथ केदारनाथ ने अपने भक्तों को अनाथ कर दिया |
कैसा सैलाब आया उसमें सब कुछ बह गया |
जो बच गये हैं वे अपने जीवित रहने का जश्न मनायें |
या जो बह गये हैं उनके गम को मन से दूर कर पायें ||

अपनी आँखों के सामने उन्होंने अपनों को बहते देखा है |
अपने पूरे परिवार सगे सम्बन्धियों को जल समाधि लेते देखा है |
वे कैसे उस दहशत से उबर पायेंगे |
क्या किसी प्रकार की राहत सामग्री पाकर वे अपना गम भूल जायेंगे ||

अपनों का दर्द तो अब उनके लिए नासूर बन गया है |
यह असीम दर्द तो उनके दिल दिमाग में रिस रहा है |
अपनों से बिछुड़ने का दर्द सहना आसान नहीं होता |
अपने जिगर के टुकड़ो को खोकर सहा नहीं जाता ||

क्या नजारा रहा होगा उस प्रलयंकारी विप्लव का |
जहां से सुरक्षित बचने का कोई रास्ता नहीं था |
चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था |
भक्तों की गुहार भगवान नहीं सुन रहा था |

फिर भी कुछ ने जीवन जीने का संघर्ष किया |
कुछ भक्तों ने अपने को ईश्वर के भरोसे छोड़ दिया |
उन्होंने कैसे वह विनाशकारी घडी झेली होंगी |
मौत से लड़ने की हिम्मत उन्हें कहां से मिली होगी ||

शवों को मलबे से निकला जा रहा था |
उनका डी.एन.ए टैस्ट भी सुरक्षित रखा जा रहा था |
जो लापता थे या मरने वालों की सूचि में थे |
उन्हें पांच-पांच लाख मुआवजा दिया जा रहा था ||

बहुत सी राहत सामग्री भी भेजी जा रही थी |
वह न जाने किसके हिस्से में आ रही थी |
ऐसे आपत्ति काल में सामाजिक संस्थायें भी पूरा - पूरा सहयोग देती हैं |
वे भी राहत कार्य में लगन सी जुटी हुई हैं ||

अन्य प्रदेशों सी पूरा सहयोग मिल ही रहा है |
बचे हुये लोगों को शरणार्थी शिविरों में रखा जा रहा है |
पर सरकार से दी जाने वाली सहायता से लोग खुश नहीं है |
वे आपदा को नहीं भुला पा रहे है  पुनर्स्थापन की मांग कर रहे हैं ||

यह कविता २०१३ में प्रकाशित काव्य संग्रह 'अधूरा अहसास ' से ली गयी हैं |

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

परचम


तेरे माथे पर आंचल बड़ा खूबसूरत लगता है |
इसे परचम बना लेती तो अच्छा होता |
पिसती रही जीवन भर अपनों के ही बीच |
कभी आवाज उठाती तो अच्छा होता ||

कैसे पार की है तूने वर्जनाओं की बीथियां |
तब आंगन बुहार पाती तो अच्छा होता |
जीवन के झरोखों से देखी है जो बारदातें |
उन्हें भी कभी समझ पाती तो अच्छा होता ||

घरेलु हिंसा का कानून जो अब बनाया है |
सदियों पहले बनवा पाती तो अच्छा होता |
नारी की अस्मिता लुटती रही जार-जार |
तब उन बलात्कारिओं को रोक पाती तो अच्छा होता ||

अच्छा या बुरा झेला तुमने सदियों से |
नारी ही नारी को समझ पाती तो अच्छा होता |
घरेलु हिंसा का कानून बनाने वालो |
जरा हिंसा का अर्थ समझ पाते तो अच्छा होता ||

आज बुलंद की है तुमने अपनी आवाज |
पहले भी बुलंद कर पाती तो अच्छा होता ||
घूँघट में छुपी थी - तुम अब तक |
इसे परचम बना पाती तो अच्छा होता || 




रविवार, 23 फ़रवरी 2014

अहसास

गुनगुनाती धूप तथा ढलती साँज का सफ़र |
आज भी काटे नहीं कट पाता है |
तुम तो नहीं होते हो |
तुम्हारा अहसास तुम्हारी याद दिलाता है ||

सुबह चाय की प्याली जब पीती हूँ |
शक्कर मत डालना सुनाई देता है |
दोपहर का भोजन जब मेज पर लगता है |
तुम्हारी कुर्सी खाली रहती है ||

अनुशासन प्रिय तुम नहीं थे |
पर दूसरों को अनुशासित रखने में दक्ष थे |
किसी भी काम में जरा लापरवाही हो |
तुम देख नहीं पाते थे ||

भोजन परोसने पर 'तुम भी आओ '|
कहना अन्दर तक तरल कर जाता था |
पर तुम्हारा असभ्यतापूर्वक खाना |
हमें जरा नहीं सुहाता था  ||

तुम न जाने कहां चले गये |
तुम्हारी कोई कुशल खबर भी तो नहीं आई |
लोग कहते है तुम स्वर्गवासी हो गये हो |
क्या तुम्हे क्वार्टर मिल गया तुम्हारी आई डी तो यही है ||

तुम जीवन भर सरकारी क्वार्टर में रहे |
तुम्हें तो वहां भी अच्छा ही लग रहा होगा |
तुम सदा ही स्वतंत्र रहे हो अब तो |
सारे बंधन तोड़ कर चले गये हो ||

हम जानते हैं जाने वाले लौट कर नहीं आते हैं |
फिर भी हम तुम्हारी बाट जोह रहे हैं |
तुम तो जीवन भर मस्त जीवन जीते रहे |
परिवार कि कभी तुमने चिंता नहीं की ||

तुम तो परिवार के लिए तब भी दूर थे |
आज तो बहुत दूर चले गये हो |
बस तुम्हारे नाम का एक अहसास हैं |
जो जीवन भर हमारे साथ चल रहा हैं चलता रहेगा ||




यह काव्य २०१३ में प्रकाशित काव्य संग्रह 'अधूरा अहसास ' से ली गयी हैं |