सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

महगांई

अमावस की रात  घनेरी ,उस पर महगांई बनी है चेरी |
सारे अरमान धरे रह गए ,हम सारा बाजार घूम कर वापस आ गए |
कैसे हम त्यौहार मनाये ,बच्चो की इछा हम कैसे पूरी कर पाये
उन्हें नए कपडे  व खिलोने कैसे दिलवाए ,रूठी बीबी को कैसे मनाये |
महगाई ने हम सबको घेरा ,चारो तरफ दिख रहा है अँधेरा |
रसोई में पडगया है डाका ,हम घर में बैठे है, हो कर फाका |
फल फूल मिठाई कैसे लाए ,मेहमानो का स्वागत कैसे कर पाये |
अपनी व्यथा किसे जा कर सुनाये ,घरवाली को कैसे मनाये |
हम तो उसे करवा चौथ पर साड़ी भी नहीं दिल पाये |
अब धन तेरस पर नए बर्तन कैसे खरीदपाये |
बेटी ससुराल गई है भाई दूज के इंतजार में खड़ी है |
क्या उपहार दे कर भाई को उसके पास भिजवाये |
कैसा जमाना हमने भी देखा था ,त्योहारो पर चढ़ता रंग चोखा था |
दस दिन तक हम सब त्यौहार मानते थे ,खूब पकवान बनाते व खाते व खिलाते थे |
अब तो घर में आने से भी डर  लगता है ,अपनी नामर्दी पर जग हँसता है |
इस महगाई में कोई कैसे त्यौहार मनाये ,लक्ष्मी जी का कैसे सत्कार कर पाये |
जनता तो सदा से ही पिसती चली आ रही है ,रोते गाते ही त्यौहार मना रही है
  

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें